भाद्र पक्ष की कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी मनाई जाती है । इस व्रत में आत्मशुद्धि तथा अध्यात्मिकता का मार्ग खुलता है ।
कथा----
सूर्य वंश में राजा हरिश्चन्द्र का जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था। राजा हरिश्चन्द्र के द्वार पट पर एक श्याम पट लगा था और जिसमें मडीयों से लिखा था ,"इस द्वार पर मुंह माँगा दान दिया जाता है ,कोई भी खाली हाथ नहीं जाता है "
महर्षि विश्वामित्र ने पढ़ कर कहा यह लेख मिथ्या है। राजा बोले 'आप परीक्षा कर लें महाराज "
विश्वामित्र बोले --अपना राज्य मुझे दे दो। राजन ने कहा राज्य आपका है ,और क्या चाहिए ?
विश्वामित्र बोले- : दक्षिणा भी तो लेनी है "रहू ,केतु और शनि की पीड़ा भोगनी सहज है ,साढ़ेसाती का कष्ट भी सुगम है ,मेरी परीक्षा में पास होने बड़ा ही कठिन है। आपको मुर्दे जलने होंगे ,आपकी पत्नी को दासी बनना पड़ेगा। यदि आप इन कष्टों से भय नहीं तो हमारे साथ काशी चलें।
राजा पत्नी और पुत्र के साथ काशी गए वहां स्वयं श्मशान में डोम (शवों को जलने के लिए लकड़ी बेचने वाले ) बने ,पत्नी दासी बनी।
राजा के पुत्र को नाग ने डस लिया परन्तु ऐसी विपत्ति में भी राजन ने सत्य का मार्ग नहीं त्यागा।
परन्तु मन में शोक उत्पन्न हुआ। उस समय गौतम ऋषि ने राजा को अजा एकादशी का व्रत विधि पूर्वक करने को कहा। राजा ने विधिपूर्वक अजा एकादशी का व्रत पूजन किया और इस एकादशी के व्रत के प्रभाव से अपने पुत्र को जीवित पाया तथा पत्नी को आभूषणों से युक्त पाया। एकादशी व्रत के प्रभाव से अनंत में स्वर्ग को प्राप्त हुए।
इस कथा के महात्म्य का फल अश्वमेघ यग्य के फल के सामान माना गया है।
इस दिन बादाम था छुहारे का सागार लिया जाना चाहिए।
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